जब किसी का कोई बस न चले ।
जब किसी को कोई रास्ता न मिले ।
जब मजबूरियां पस्त कर दे ।
तब जाकर इसको एक नाम दिया गया ,
और वो नाम है ।
" सब्र "
सब्र सिर्फ़ एक शब्द है , और कुछ भी नहीं ।
जो इंसान के तमाम कमजोर पहलुओं से
गुजरते हुए , लोगों के जिंदगी में अपनी एक
ख़ास जगह बना चुका है ।
इसी सब्र के पर्दे के पीछे , तुम अपने आप को ,
अपनी कमजोरियों को , अपनी बेबसी को और
अपनी लाचारियों को छुपाते हो ।
और यह कह कर खुश होते हो कि -
मैंने सब्र कर लिया ।
यह सुन कर लोग भी शांत हो जाते हैं ।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि , जब तक तुम ,
इस सब्र नाम के पर्दे को नोच कर फेंकोगे नहीं ।
इसमें छुपने की आदत को छोडोगो नहीं ।
तब-तक तुम्हारा कोई कल्याण नहीं हो सकता ।
अब तुम्हारे उपर निर्भर करता है कि -
तुम्हें क्या करना है ?
इस पर्दे से बाहर आकर जीत हासिल करना है ।
या कायरों की तरह सब्र के आड़ में लोगों को ,
और खुद को सारी जिंदगी धोखा देना है ।
" जावेद गोरखपुरी "